Tuesday, March 3, 2009

रन फॉर इंडिया

विमल कुमार
इस उम्र में माधव बाबू दौड़ते-दौड़ते हाफ़ने लगे थे।
वे अपने साथियों से पीछे-बहुत पीछे छूट गये थे। इतना पीछे कि मुड़कर उन्हें देखा नहीं जा सकता था। वे सब ओझल हो गये थे। बस उनकी स्मृतियाँ ही बची थीं।
हाफ़ने के बाद वे चुपचाप पुलिया पर बैठ गये। नहीं, अब नहीं, इस उम्र में वह दौड़ नहीं सकते। यह भी कोई दौड़ने की उम्र है। इसीलिए वह इस दौड़ में कभी शामिल नहीं रहे। उन्होंने जिन्दगी में कभी कोई दौड़ नहीं लगायी। वे तो चुपचाप चलते रहे। धीमी गति से।
पुलिया पर बैठे वह उगते सूरज को देखने लगे। आसमान पर लाल बिन्दी-सा। उसे देखते ही उन्हें अपनी पत्नी याद आ गयी। वह जब ब्याह कर लाये थे, तो उसके माथे पर भी लाल बिन्दी हुआ करती थी, पर वह धीरे-धीरे गायब हो गयी। वक्त के थपेड़ों के साथ।
माधव बाबू न जाने क्या-क्या सोचने लगे। नहीं, वह तो पूरी तरह तन्दुरुस्त हैं, चंगे हैं, तो फिर वह हाफ़ने क्यों लगे। थोड़ी ही देर दौड़े कि थक गये। पांव जवाब देने लगे।
कहीं वह डायबिटीज के मरीज तो नहीं हो गये? क्या वे दिल के मरीज तो नहीं हो गये?
अभी तो माधव बाबू रिटायर हुए हैं। लेकिन कुछ सालों से उन्हें लगने लगा है कि जिन्दगी की रफ्तार कुछ ज्यादा तेज हो गयी है। इतनी तेज रफ्तार में वह दौड़ नहीं सकते। वह तो चलते हुए भी लड़खड़ाने लगते हैं। कल ही वह टी.वी. पर न्यूज सुन रहे थे - फ्रांस में विमान की गति से भी तेज चलने वाली ट्रेन बनी है। अपने देश में भी बुलेट ट्रेन चलने की चर्चा होने लगी है।
इतनी तेज रफ्तार! लेकिन यह रफ्तार केवल गाडि़यों, मोटरों या प्लेनों और ट्रेनों तक सीमित नहीं थी। उन्हें लगता था कि आजकल घड़ी की सूयिआं भी तेज हो गयी हैं। घड़ी में यू तो अभी भी चौबीस घण्टे होते हैं, पर लगता है कि सूयिआं पहले से तेज चलने लगी हैं। सुबह-शाम बीतते या रात ढलते पता ही नहीं चलता। यहा तक कि गर्मी, बरसात और जाड़ा भी तेजी से गायब होने लगे। साल भी तेजी से बदलने लगा।
देखते-देखते उनके बच्चे नौकरी करने लगे, प्राइवेट नौकरी ही सही, लड़किया भी ब्याह गयीं, दामाद भले ही कॉल सेण्टर में काम करते हों।
माधव बाबू की दाढ़ी पक गयी। चेहरे पर झुर्रियां लटकने लगीं, पर यह तो सबके साथ होता है। सबका जीवन इसी तरह बीतता है। हर युग में समय इसी तरह बदलता है, पर क्या वाकई अब समय पहले की तुलना में तेजी से बदल रहा है।
दिल्ली आकर तो माधव बाबू को यही लगता था, पर जब वे अपने गा¡व जाते थे, तो लगता था कि समय अभी ठहरा हुआ है। सब कुछ धीमा और सुस्त। लोग चेहरे लटकाये हैं।
माधव बाबू पुलिया पर से उठे और अपने मकान की तरफ चलने लगे। कल बजट का दिन है। बेटा एक निजी चैनल में काम करता है। वह बता रहा था कि इस बार बजट में काफी कुछ घोषणाए¡ होने वाली हैं। उन्होंने अखबार में पढ़ा था। टी.वी. पर भी यही बताया जा रहा था। माधव बाबू का बेटा राहुल बता रहा था- `पापा, कल बजट में किसानों के कर्ज की माफी की घोषणा होगी। बहुत इम्पोüटेण्ट डे है इçण्डयन पोलिटिक्स की हिस्ट्री में। कल तो मैं सुबह ही निकल जाऊगा। एक-एक की बाइट, अपोजीशन लीडर की भी बाइट लेनी है।´
माधव बाबू खुश भी थे कि उनका बेटा टी.वी. पर आने लगा है। घर-रिश्तेदारों में उनकी थोड़ी इज्ज़त बढ़ गयी थी। खानदान के जो लोग उनकी परवाह नहीं करते थे, अब वे भी माधव बाबू से राहुल का हाल जरूर पूछते। वे कहते- `जरा राहुल से कहकर आप भी कभी हमें पार्लियामेन्ट दिखा दें। जरा हम भी लालू, सोनिया और वाजपेयी जी को लोकसभा में बोलते देखना चाहते हैं।´
माधव बाबू बाहर से खुश जरूर थे, पर अन्दर से नहीं। राहुल सुबह नौ बजे निकलता तो रात ग्यारह बजे घर लौटता था। छुट्टी के दिन भी फोन आ जाता तो उसे दफ्तर भागना पड़ता था। बहू भी कहीं काम करने लगी थी। वह शाम को जल्द लौट आती थी, पर दिन भर उनके बेटे की माधव बाबू और उनकी पत्नी देखभाल करते।
छुट्टी के दिन बेटे और बहू अपने कामकाज को निबटाने में लगे रहते थे। खाने की मे$ज पर मा¡-बाप अपने बेटों से मिलते थे। वहीं जो बात हो जाये तो हो जाये, अन्यथा पूरी बात भी नहीं हो पाती थी।
माधव बाबू सोचने लगे - क्या मुल्क की तस्वीर बदलेगी शास्त्री जी के जमाने से उन्हें याद है। जब वह स्कूल में पढ़ते थे तो जी.डी. देशमुख वित्तमंत्री हुआ करते थे। वह बजट पेश करते थे। तब से यही कहा जा रहा है कि मुल्क की तस्वीर बदल जायेगी। लेकिन वह तो यही देख रहे थे कि महगाई बढ़ती जा रही है। बेरोजगारी भी बढ़ती जा रही है। प्रधानमंत्री भी अब कहने लगे हैं कि गा¡व और शहरों में खाई बढ़ रही है, असमानता बढ़ रही है। दूसरी तरफ अपने देश में करोड़पति भी बढ़ रहे थे।
माधव बाबू अपने जीवन में अपनी कमाई से एक मकान भी नहीं बना पाये। लोग कहते हैं कि अब बैंक भी काफी लोन देने लगे हैं, पर माधव बाबू किस्त कैसे चुकाते। तीन-चार बच्चों की पढ़ाई। ऊपर से लड़कियों की शादी के लिए दहेज।
बड़ी मुश्किल से एक एल.आई.सी. करवाया था। कभी अपने इलाज में पैसे खर्च, तो कभी पत्नी के इलाज में, तो कभी माता-पिता के दवा-दारू में पैसे खर्च। कहा बचत करते, किस तरह करते। माधव बाबू अपने बेटे के पास आ तो $जरूर गये थे, पर यहा आकर वे काफी अकेला महसूस करने लगे थे। इससे अच्छा तो जमशेदपुर था, वहा¡ वह स्कूल में इतने दिन तक पढ़ाते रहे, पर वह वहा¡ रहते कैसे। अपना मकान तो था ही नहीं। अब तो बेटे के साथ उनका रहना उनकी मजबूरी भी थी।
अगले दिन माधव बाबू टी.वी. खोलकर बैठ गये बजट का लाइव टेलीकास्ट देखने। थोड़ी ही देर में वित्तमंत्री अपना बजट भाषण पढ़ने लगे, तभी बिजली चली गयी। घर में इनवर्टर जरूर था, पर टी.वी. से उसका कनेक्शन नहीं था। उन्होंने मुहल्ले में पड़ोसियों से पूछा, पर उनमें किसी के पास टी.वी. में इनवर्टर कनेक्शन नहीं था।
माधव बाबू की पत्नी ने कहा- `जरा राहुल को फोन कीजिए। वह वहीं से कुछ बतायेगा।´
माधव बाबू ने राहुल के मोबाइल पर फोन करने की कोशिश की, पर फोन नहीं लगा। वह थक-हारकर बैठ गये। कहीं दो बजे राहुल का फोन आया- `पापा, वित्तमंत्री ने किसानों के क$र्ज माफ कर दिये और हा इनकम टैक्स में भी काफी रिबेट दिया है। सीनियर सिटीजन को भी टैक्स रिबेट दिया है। ........´
तभी राहुल का फोन कट गया। माधव बाबू बेटे से पूछना भूल गये - मह¡गाई कम करने के बारे में कुछ घोषणाए¡ हैं!
माधव बाबू फिर उठे और टी.वी. खोलने लगे, पर बिजली नदारद। शाम तक बिजली नहीं आयी। वह शाम को सैर करने निकल पड़े। थोड़ी देर के लिए बिजली आयी, पर फिर चली गयी। आठ बजे लौटे तो देखा कि घर की बत्ती जल रही है, पर भीतर पहु¡चने पर मालूम हुआ कि इनवर्टर की लाइट जल रही है।
रात दस बजे तक बिजली नहीं आयी। माधव बाबू टी.वी. पर बजट की जानकारी नहीं ले सके। राहुल ने बीच-बीच में फोन कर उनकी पत्नी को कुछ जानकारिया जरूर दीं, पर उन्हें पूरी तरह समझ नहीं आयी, इसलिए वे अपने पति को नहीं बता सकीं। वह सिर्फ इतना ही बोली कि- `राहुल फोन पर क्या तो कह रहा था। मेरे तो पल्ले ही नहीं पड़ रहा था।´
`तुमने उससे नहीं पूछा- आटा, चावल, दाल के दाम कम हुए या नहीं?´
`ओ! यह तो मैं पूछना ही भूल गयी। वह तो इतना उत्साहित था कि मैं कुछ पूछ ही नहीं पायी।´
माधव बाबू खा-पीकर सो गये। सुबह उठे तो अभी अ$खबार नहीं आया था। वह टहलने निकल गये।
आज वह फिर दौड़ने की कोशिश करने लगे, पर दौड़ नहीं पाये। वह थोड़ी ही दूर दौड़े होंगे कि उन्हें लगा कि उनका पा¡व मुचक गया है। वह पुलिया पर बैठ गये। सामने कई शापिंग मॉल बन रहे थे। उधर, ऊची-ऊची अपार्टमेन्ट। सामने एन.एच.-24 हाइवे था। बायीं तरफ मैनेजमेन्ट कॉलेज, दायीं तरफ टेक्नॉलाजी पार्क। पीछे झुग्गियां ही झुग्गियां| सामने मैदान में गरीब मर्द-औरत शौच कर रहे थे।
मदर डेयरी की गाड़ी आ रही थी। स्कूल की बसें चलने लगी थीं। कई नौजवान लड़के और लड़किया¡ लम्बी-लम्बी गाडि़यों से उतरे और वे सड़क के किनारे पार्क में जागिंग करने लगे। उन्होंने गले में मोबाइल लटका रखा था और कानों में उसकी तार फसी हुई थी। वे शायद कोई म्यूजिक सुन रहे थे। उन लड़के एवं लड़कियों ने ट्रैक सूट पहन रखा था और रीबॉक के महगे जूते पहन रखे थे। वे आपस में अंग्रेजी में ही बात कर रहे थे। उनमें से कुछ पार्क में एक्सरसाइज करने लगे।
जब एक्सरसाइज खत्म हुआ तो उनमें से कुछ बच्चे माधव बाबू के पास आये। वे बोलने लगे- `अंकल, हम लोग मैनेजमेन्ट के स्टूडेण्ट्स हैं। रिटेल सेक्टर में एफ.डी. आई. पर अपनी रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं। क्या आप बजट पर अपना रिएक्शन देंगे?´
माधव बाबू कल से ही चिढ़े हुए थे। वह बिजली गुल होने के कारण टी.वी. पर बजट देख नहीं पाये थे, लेकिन इन लड़कों को क्या कहते। हालाकि उन्हें बाद में पता चल गया था कि बजट में क्या-क्या घोषणाए¡ हुई हैं।
माधव बाबू ने सामने एक झोंपड़ी से निकलते आदमी की तरफ अगुली करके कहा- `बेटे! बेहतर है, तुम लोग उस आदमी से पूछो। वह जो बात कहेगा, वही इस मुल्क का सही रिएक्शन होगा।´
लड़के बोले- `अंकल! वह आदमी तो बजट समझता ही नहीं और फिर वह हमारा कंज्यूमर भी नहीं है। हमें तो आपसे ही रिएक्शन लेना है।´
माधव बाबू बोले- `बेटे! हमारा यही रिएक्शन है कि इस मुल्क का आदमी अभी-भी बजट पर अपना रिएक्शन देने की स्थिति में नहीं है, वह बजट को इसी रूप में समझता है कि उसके घर का बजट कितना गड़बड़ा गया है। तुम अपनी रिपोर्ट में यही लिख दो।´
लड़के माधव बाबू की बातें सुनकर खीझ गये। उन्होंने ेकहा- `अंकल! यह भी कोई बात हुई। अपना रिएक्शन देना नहीं चाहते, तो मत दीजिए। यह आपके जेनेरेशन की प्रॉब्लम है। ओ.के. - बाई।´
यह कहकर लड़के चले गये। तभी थोड़ी देर में अ$खबार वाला दिखा। सभी लड़के उसकी तरफ टूट पड़े और अ$खबार छीनने लगे।
अ$खबार वाला चिल्ला पड़ा- `अरे भाई! आपके घर पर अखबार फेंक दूगा। आप लोग यहा¡ क्यों ले रहे हैं? मेरा हिसाब गड़बड़ा जायेगा।´
तभी एक लड़के ने अ$खबार वाले को जबरदस्त घू¡सा मारा। अखबार वाला साइकिल लिए सड़क पर गिर गया। उसके मुह से खून निकल आया।
माधव बाबू अ$खबार वाले को पहचानते थे, क्योंकि वह उनके घर भी अ$खबार फेंकता था।
लड़के चिल्ला रहे थे- `साले, वास्टर्ड! एक तो अखबार देर से फेंकता है। जानता नहीं, आज बजट का अखबार है। हमारे लिए कितना इम्पोüटेण्ट है। ऊपर से बहस करता है। फाइनेन्स मिनिस्टर ने कितनी इम्पोर्टेंट एनाउण्समेन्ट की हैं। इनकम टैक्स में रिबेट, एक्सपोर्ट ड्यूटी कम की है। ग्रोथ रेट बढ़ गया है। तेरे जैसे गरीब लोगों की हालत सुधारने में मनमोहन सिंह लगे हैं। तुम लोगों को कभी कुछ समझ में नहीं आयेगा। कामचोर और निकम्मे ठहरे तुम सब। मुल्क में बैकवर्डनेस का यही कारण है।´
अखबार वाला हक्का-बक्का था। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। माधव बाबू जब तक दौड़कर अखबार वाले के पास आते, तब तक लड़के अखबार की कई प्रतिया¡ झपटकर अपने-अपने घर की तरफ बढ़े।
माधव बाबू ने सोचा कि दौड़कर उनमें से एक को पकड़ लें। वे दौड़े भी, पर पता नहीं क्यों दौड़ नहीं पाये। उनकी नि$गाह लड़कों की टी-शर्ट पर गयी। उनकी पीठ पर लिखा था - बड़े-बड़े अक्षरों में - `रन फार इंडिया´ और बानüवीटा की तस्वीर छपी थी।
माधव बाबू ने जिन्दगी में आज तक `रन फार इंडिया´ में भाग नहीं लिया था। शायद यही कारण है कि वह उन लड़कों को दौड़कर पकड़ नहीं सके। आइकान, फोर्ड जैसी लम्बी गाडि़या फौरन स्टार्ट होकर हवा में गायब हो गयीं।
माधव बाबू अखबार वाले को उठाने लगे। सड़क पर बिखरे अखबारों में प्रधानमंत्री मुस्करा रहे थे। उनकी आ¡खों में एक रंगीन सपना था, जो माधव बाबू को बहुत डरावना लग रहा था। उन्होंने ऐसी आखें अपनी जिन्दगी में नहीं देखी थीं।

Sunday, March 1, 2009

द लॉन्ग नाइन्टी : समय को समझने का एक विनम्र प्रस्ताव

बद्रीनारायण
हिन्दी साहित्य के पब्लिक स्फेयर में `साहित्य में समय´, `अपने समय की अनुगूंज´, `समय से मुठभेड़´ एवं टकराहट जैसे अनेक नारे सुनाई पड़ते रहते हैं। हममें समय की थाप है, आपमें नहीं, ऐसा कहकर समय का `ऑथरटेटिव मीनिंग´ विकसित किया जाता है एवं उस मीनिंग से साहित्य के अन्य तलों में मौजूद समय के अनेक रूपों का ध्वंस कर रचना के अन्य रूपों, जो हमसे भिन्न हैं, को खारि$ज कर रचना का एक होमोजेनियस प्रारूप बनाने एवं उसे प्रभावी रखने की कोशिश की जाती है। समय एक तानाशाह है। इस तानाशाह की तानाशाही करते हुए विचारक, कुछ आलोचक, कुछ कवि रचना जगत की प्रसिद्ध पर कब्जा चाहते रहे हैं। लेकिन ऐसी व्याख्याओं में आधारभूत दोष यह है कि इनमें समय को देखने का नजरिया ही थोड़ा भोंडा, थोथा, स्थूल एवं खोखला होता है। जब समय को देखने का नजरिया ही दोषपूर्ण है तो साहित्य में समय की खोज की कोशिश कितनी निष्पक्ष होगी। इस आलेख में मेरी कोशिश `नब्बे के समय के बनने की प्रक्रिया´ पर विचार करना है।
समय की अवधारणा पर कुछ बातें : अगर आप मेरे गाँव के एक अपढ़ किसान को दार्शनिक मानें, तो उसके लिए भी समय एक और एक-सा नहीं है। एक ही साथ वह समय को विकट मानता है, प्रारब्ध मानता है, नियति मानता है। वह कठिन समय में भी कर्मठ होते हुए पर्व-त्यौहार, एवं व्रतों के रूप में अपने जीवन समय को सेलिब्रेट करता है। उसके लिए एक तो समय एक-सा नहीं है। समय क्षण-क्षण परिवर्तनशील है। वह समय में ही जीता है, समय से वह लड़ता है, पर समय पर उसका नियंत्रण नहीं है। समय पर किसी और का नियंत्रण है। भाग्य, भगवान या नियति का। यहाँ पर समय में वह जीता है, समय उसमें जीता है, पर समय इसका सेल्फ न होकर `अदर´ हो जाता है। एक अपढ़ श्रमिक खेतीहर के लिए `दैनिक जीवन-समय´ के भीतर ही `श्रम समय´, `आध्यात्मिक समय´, `रिचुअल एवं सेलिब्रेशन समय´ इत्यादि एक साथ ही जीवनचर्या में बहुल स्पेस बनकर सक्रिय होते हैं।
नगरीय समय बोध की तरह यहा¡ कैलेण्डर, घड़ी, जयंतियों, शताब्दियों एवं सरकारी कार्यालयीन अवकाशों के रूप में समय विद्यमान नहीं होता है। हाला¡कि बढ़ते बा$जार का ग्रामीण क्षेत्रों में प्रसार, ग्राम्य जीवन के जीवनपरक उत्पादों का व्यावसायिक उत्पादों में तब्दीली, उनका निर्यात, मोबाइल, पी.सी.ओ. की उपस्थिति एवं संचार से जुड़ी गतिविधियों इत्यादि ने ग्रामीण जीवन के समय बोध एवं `ग्रामीण टाइम स्पेस´ में गतिशील अनेक `टाइम स्पेस´ की उपस्थिति को हतकर `एक इम्पटि होमोजिनियस स्पेस´ में तब्दील कर रहा है। अगर आप अनपढ़ ग्रामीण श्रमिक किसान का समय बोध, जो उसकी हथेलियों की रेखाओं और ललाटों में लिखा होता है, जिसे वह दिन-रात खटखट कर बदलता है। ये रेखाए¡ उसके श्रम से बदलती हैं, किन्तु जिसे वह अपरिवर्तनशील मानता है। एक किसान के समय बोध में आपको एम्बीवेलेन्स दिखाई पड़ेगा, एक तरफ तो वह यह मानता है कि दिन (समय) बदलता है, `सब दिन होत न एक समाना´ वहीं दूसरी ओर वह यह भी मानता है कि सब कुछ पहले से लिखा हुआ है। अर्थात बदलती परिस्थितियों और सन्दर्भों के अनुसार वह समय को कभी नियत और कभी परिवर्तनशील मानता है।
वही परम्परावादी ज्ञानी दार्शनिकगण यथा- आनन्द कुमार गोस्वामी, रेनेग्योनान, गोपीनाथ कविराज तथा उनकी वर्तमान सन्ततिया¡, यथा- गोविन्द चन्द पाण्डेय, यशदेव शल्य जैसे टीकाकार या थोड़ी आधुनिक-सी दिखती कपिला वात्स्यायन या अपने अज्ञेय जी समय को सदा शाश्वत, सदा अपरिवर्तनीय अर्थात सनातन मानते रहे हैं। अब यह अलग बात है कि प्रो. अरविन्द शर्मा जैसे विद्वान इस `सनातनता´ को आधुनिक अर्थ देने की कोशिश करते हुए उस अपढ़ किसान दार्शनिक से इसे जोड़ने की कोशिश करते दिख जायेंगे। या गोविन्दचन्द जी कहेंगे कि लोक में जो भी समय बोध है, वह पौराणिक एवं शास्त्रीय समय बोध का ही प्रसार एवं अनुकरण है, जो सनातन है अर्थात अपरिवर्तनशील है। विद्वानों का यह संवर्ग समय चक्र में किसी भी परिवर्तन को विकार मानता है। उनका सनातन अविकारी है एवं होमोजिनियस एवं होलिस्टिक है। ऐसे लोग पौराणिक समय बोध जो चक्रीय (सरकुलर) है, पर गहन विश्वास करते हैं। पश्चिमी समाज का समय बोध भी भयानक रूप से होमोजिनियस है, जो लिनियरिटि (एकरैखिकता) में विश्वास करता है।
भारतीय परम्परावादी एवं पश्चिमी आधुनिकतावादी दोनों में ही समय को व्याख्यायित करने के सन्दर्भ में एक मामले में एकरूपता है कि दोनों ही एक समय में रहते हुए भी अनेक टाइम स्पेस को नकारते हैं। इस प्रक्रिया में परम्परावादी एवं आधुनिकतावादी दोनों ही समाज के प्रभावी सत्ताओं के अधिपत्यशाली बोध को ही एकमात्र समय बोध मानते हुए शक्तिहीनों के समय बोध को नकारने की कोशिश करते हैं। साथ ही समय के आदर्श एवं एब्सट्रैक्ट अर्थ पर $जोर देते हुए समय के सामाजिक निर्मित्ति को नकारते हैं।
जाहॉनेस फेबियन ने अपने अत्यन्त प्रसिद्ध किन्तु नवीन शोध `टाइम एण्ड द अदर´ : हाऊ एन्थ्रोपोलॉजी मेक्स इट्स आब्जेक्ट (कोलोम्बिया युनिवेर्सिटी प्रेस, कोलोम्बिया) में एक महžवपूर्ण स्थापना करते हैं कि हम एक ही समय में रहते हुए अनेक समय स्पेस में जीते हैं। चू¡कि समाज अनेक स्तरों में ब¡टा है, अत: अनेक स्तरों में बंटे समाज में अनेक समय स्पेस होंगे। आपने पहले के मेरे वृत्तान्त में देखा कि किस प्रकार एक अपढ़ किसान का समय बोध दार्शनिकों से भिन्न है। वहीं पिछले लोकसभा चुनाव में हम लोग इलाहाबाद के पास के एक जनजातीय आबादी वाले गा¡व में लोगों का साक्षात्कार ले रहे थे। गन्नू नाम के एक गोंड से हम लोगों ने पूछा- आप मुरली मनोहर जोशी को वोट देने की बात कर रहे हैं, आपको पता है वो कौन हैं? उसने कहा- वे गा¡धी जी की पार्टी के हैं। गा¡धी जी के बेटे हैं। देखिये, इस गोंड के लिए आज भी समय 1955 के आसपास ही रुका है। वहीं इलाहाबाद शहरवासियों के लिए `समय´ इक्कीसवीं शताब्दी, आई.टी. युग में प्रवेश कर चुका है। अगर हम आ$जादी के बाद 1950 के समय के अर्थ पर ही विचार करें तो 1950 अथाüत् भारतीय आ$जादी का प्रभात भारतीय समाज के आभिजात्यों के लिए अलग या एवं दलितों के लिए, जनजातीय समाजों के लिए तो और भी अलग होगा।
नाइन्टीज की निर्मित्ति का लॉन्ग डूरे : उपयुüक्त विमर्श से जो बात निकलती है, उनमें से कुछ का इस्तेमाल हम यहा¡ नब्बे के समय पर बात करते हुए करना चाहेंगे। एक तो हम नब्बे के समय की सामाजिक निर्मित्ति तलाशना चाहेंगे। दूसरे हम इस पर बात करते हुए समय की सनातनता की अवधारणा को भंग करना चाहेंगे। समय अपने एब्सट्रैक्ट एवं आदर्श अथोZ में सनातन हो सकता है, किन्तु मानुष अपने जीवन क्रम में उसकी सनातनता को बार-बार भंग करता है। समय की आविष्कृत सनातनता के इसी भंगीकरण के क्रम में समय अपना अर्थ पाता है। समय की सनातनता के इसी भंगीकरण के क्रम में सामाजिकता या `सोशल टाइम´ रचा जाता है और शायद इसी क्रम में समय की सामाजिक निमिüति सम्भव हो पाती है। फ्रा¡सीसी इतिहासकार फनाüन्ड ब्रॉदेल अपने प्रसिद्ध `द व्हील ऑफ कॉमर्स´ में आम मानुष के दैनçन्दन जीवन में एब्सट्रैक्ट समय की इसी सनातनता के भंगीकरण की सामाजिक एवं आर्थिक प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन करते हैं।
फ्रेंच एनाल्स स्कूल जब भी किसी समय अथवा समय-खण्ड पर विचार करता है तो उसे वह `फिज्ड´ एवं `फिक्स्ड´ समय इकाई के रूप में नहीं देखता। इतिहास को मात्र घटनाओं तक ही सीमित करके नहीं देखता, वरन् `लॉन्ग डूरे´ के रूप में देखता है। अर्थात कोई भी समय एक समय-खण्ड की इकाई मात्र न होकर एक प्रक्रिया है, जो उस समय के पहले भी घटित होता रहता है एवं उस समय के बाद भी। उक्त समय-खण्ड को निर्मित करने में उसके पहले का सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक इतिहास एवं उसके बाद के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक इतिहास में उसकी व्याप्ति का अवलोकन दोनों मिलकर उस समय की इकाई का अर्थ सृजित करते हैं।
पुन: वह समय-खण्ड अपने आप में एक आइसोलेटेड खण्ड नहीं होता। उक्त समय में भी अनेक समय बोध अनेक समुदायों में सक्रिय होते हैं। ये समय बोध अगर नामवर जी की मानें तो आमने-सामने न होकर अगल-बगल होते हैं। गोविन्द वल्लभ पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद में `साहित्य एवं समय : पीढियाँ आमने-सामने´ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में नामवर जी ने अनेक पीढियाँ, जो उनके समय बोधों के साथ एक ही समय में सक्रिय होती हैं, उनका आपसी सम्बन्ध बनाम एवं टकराव का न होकर आपसी सह-अन्त:संवाद का होता है, जैसी राय व्यक्त की थी। उन्होंने यह भी बताया था कि ऐसे ही समकालीनता बनती एवं अर्थ पाती है। अगल-बगल रह रहे अनेक समय बोध मिलकर एक निçश्चत समय-खण्ड का अर्थ रचते हैं साथ ही अलग-अलग अपना भी अर्थ रचते हैं।
आज़ादी के बाद भारतीय जनतंत्र के इतिहास में 50, 60 एवं 90 - तीन महžवपूर्ण समय-खण्ड हैं। 50 इसलिए, क्योंकि हमें आज़ादी मिली थी, आज़ादी की लड़ाई के दौरान जनगण ने जिन सपनों को देखा था, उन्हें सच होने की प्रक्रिया प्रारम्भ होनी थी या पूरा होना था। दूसरे आजाद भारत में जनतांत्रिक चुनाव एवं जनतांत्रिक चुनाव में नये सपनों एवं वादों को देखने एवं दिखाने का यह पहला अवसर था। यही वह वक्त था जब फूलपुर संसदीय क्षेत्र से नेहरू जी चुनाव लड़ रहे थे और उनकी चुनाव सभाओं में दलित जनगीत गा रहे थे-
भारत स्वर्ग लोक होइ जाइहीन
धीर धरा सजनी
धीर धरा सजनी
छुआछूत का भेद मिटाई हैं
इ देखा बुद्धिमानी
पंडित धोबी के घर खाइहैं
धीर धरा सजनी
भारत स्वर्ग लोक ..........
विधा का परचम है भारी
अब खुल गये मदरसे
बिजली, ट्यूबवेल, नहर गड़े में
नाही बाटे अरसा
नाही बाटे अरसा
नदिया¡ दूधन से भर जाइहैं
धीर धरा सजनी
लेना-देना तेरही-बरही
सब छूट जाइहैं
पू¡जीपूति बैइठ रोइहैं
धीर धरा सजनी

इस गीत में यह सपना था कि सबको खाने को चावल मिलेगा, हर तरफ नहर एवं बिजली हो जायेगी, शिक्षा का प्रसार होगा और हर तरफ मदरसा खुल जायेगा। साथ में सबसे बड़ा सपना था कि ब्राrाण धोबी के घर खाने में परहेज नहीं करेगा। जिनमें कुछ सपने सच हुए, कुछ सपनों को अभी भी सच होना है।
यह एक प्रकार से भारतीय राष्ट्रवाद एवं जनतांत्रिक राज्य के मेटानैरेटिव के उद्भव एवं विकास का काल था। जिसमें सबके सपने जो आ$जादी की लड़ाई के दौरान एक थे, नवीन विकासपरक आकांक्षाओं के साथ जुड़कर विस्तारित हो रहे थे। भारतीय कल्याणकारी राज्य से अपेक्षाए¡ बढ़ रही थीं कि इस वक्त भी भारतीय समाज के आभिजात्य का समय बोध सचमुच 1950 में था, जो भारतीय राज्य की शक्ति एवं सुविधाओं को ज्यादा से ज्यादा हथिया लेना चाहता था, वहीं दलित पिछड़े एवं उपेक्षित तबके अभी भी आ$जादी की लड़ाई के दिनों में अपने सरवाइवल के लिए अंग्रेजी साम्राज्य के दंश से उबरने, क्रिमिनल ट्राइब एक्ट इत्यादि से मुक्ति की स्थिति बनने के सपने में पड़े थे। किन्तु जीवन के लिए बेहतर स्थिति के उनके सपने विकास की आकांक्षाओं से भी जुड़ने लगे थे, और 50-60 के बीच भारतीय समाज के राष्ट्रवाद का मेटानैरेटिव जो ग्रास रुट पर उतना नहीं बना था, जितना प्रचारित हुआ था, टूटने लगा था।
फणीश्वरनाथ रेणु इसी वक्त अपने उपन्यास `मैला आ¡चल´ में अत्यन्त सबवçर्सव ढंग से भारतीय ग्राम समाज में घटित होने वाले इस स्वपAभंग एवं इस स्वप्नभंग से जनित क्षोभ एवं टकराव का अंकन कर रहे थे। भारतीय गा¡व पर 50 से 60 के बीच जो भी अध्ययन हो रहे थे, विकास की जो योजनाए¡ बन रही थीं, उनका स्वर भी दलित एवं उपेक्षितों पर केçन्द्रत नहीं था। गा¡व के नाम पर गा¡व के अभिजन का जय हो रहा था। एक तरफ 1950 के दशक में बन रहे भारतीय राज्य के विकासपरक प्रोजेक्ट्स पर तथाकथित `राष्ट्रीय अभिजन´ का कब्जा हो रहा था, वहीं दूसरी तरफ उपेक्षित समुदाय की आकांक्षाए¡ बढ़ रही थीं, जो उनमें अनेक भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति उनके स्वपAभंग का बीज बो रहा था। परिणामत: 1960 के दशक में भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति मोहभंग स्पष्ट रूप से दिखने लगता है। दलित शिक्षित लेखक संवर्ग 1960 के बाद भारतीय राष्ट्रवाद के दलित नायकों को ढू¡ढ़ना शुरू करता है। भारतीय राष्ट्रवाद के वृत्तान्त में अपनी छवि खोजना शुरू करता है। अछूतानन्द, अम्बेडकर जैसे लोग जो मुख्यधारा के राष्ट्रवाद से टकरा रहे थे, से भिन्न 1960 के बाद का शिक्षित दलित जन मुख्यधारा के राष्ट्रवादी वृत्तान्त में अपने नायक ढू¡ढ़कर आ$जादी की लड़ाई में अपनी भूमिका एसर्ट कर भारतीय जनतांत्रिक राज्य के कल्याणकारी प्रोजेक्ट्स में अपना शेयर मा¡ग रहा था। 1960 का यह मोहभंग एवं भारतीय जनतंत्र पर एक खास तबके के कब्जे की यह अनुगू¡ज उस समय की मुख्यधारा के साहित्य में भी दिखाई पड़ने लगी थी। मुक्तिबोध की कविता `अ¡धेरे में´ उस समय की सम्पूर्ण कशिश को अत्यन्त आलोचनात्मक ढंग से अभिव्यक्त करती है। आ$जादी की लड़ाई के दौरान उभरे सपने से बने भारतीय जनतंत्र के हाइजैक हो जाने की कथा को अत्यन्त संशय एवं भय के साथ वे `अ¡धेरे में´ कविता में जगह देते हैं। 1960 के बाद ही 1962 में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के समानान्तर दलित अपनी नायिका झलकारीबाई की रचना करते हैं, जिसकी अभिव्यक्ति भवानीशंकर विशारद की लोकप्रिय पुस्तिका `वीरांगना झलकारीबाई´ में होती है।
1960-80 के मध्य भारतीय राष्ट्रवाद का राजसत्ता एवं अभिजन रचित वृत्तान्त में दरकन की प्रक्रिया विकसित हो रही थी। भारतीय जनतांत्रिक सत्ता से मोहभंग की प्रक्रिया तेज हो रही थी। कल्याणकारी योजनाओं का लाभ आधारतल तक पहु¡च नहीं रहा था और ऊपर ही ऊपर कई नये उभरे सत्ता समूह (चील-बाज) उन्हेंे झपट ले रहे थे। भारतीय जनतांत्रिक राजसत्ता की संकटग्रस्तता बढ़ती जा रही थी। परिणाम 70-80 के कालखण्ड की इमजेüन्सी में दिखाई पड़ता है। इसलिए 70-80 तक के कवियों की रचनाओं में अगर आप देखें तो जनतांत्रिक स्वप्रों, जिसके मोहभंग की शुरुआत 60 में हो चुकी थी, उनका विस्तार दिखाई पड़ता है। जे.पी. आन्दोलन, इमजेüन्सी की प्रतिरोधी राजनीति से बने उनके मानस में और साहित्य में भी प्रदर्शनकारी राजनीतिक (जुलूस, घटना, प्रदर्शन, अòबवियस पॉलिटिक्स की) मा¡ग का आग्रह दिखाई पड़ता है। 70-80 तक के कवियों की एक धारा, जो महानगरीय चेतना बोध से जुड़ी है एवं उस तबके का हिस्सा रही है, जिसने शहरों में आपातकाल के विरोध का नेतृत्व किया था, में ऐसी खुली पçब्लक स्पेस की राजनीति का घनघोर आग्रह दिखाई पड़ता है। इस समय-खण्ड में ही इमजेüन्सी के प्रतिरोध से उभरी राजसत्ता एवं उसके स्वप्र भी भंग होते हैं। इसी कालखण्ड में वे कवि ज़्यादा बेहतर कविताए¡ लिखते हैं, जो इमजेüन्सी से उभरे जन्स्वप्र को मरते देख उसकी प्रतिक्रिया एवं प्रक्रिया में रचना लिख रहे थे। अरुण कमल, राजेश जोशी, विष्णु नागर, असद की कविताए¡ इन्हीं काव्य प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करती दिखती हैं।
80 से 1990 का कालखण्ड जो द ला¡ग नाइन्टीज का निणाüयक कालखण्ड है, में विश्व मानवीय विकास के इतिहास में एक महžवपूर्ण दुर्घटना होती है, वह है सोवियत रूस का पतन। प्रतिरोध एवं परिवर्तन के महान स्वपA का भंग। इस घटना ने पूरी दुनिया में एक संशय एवं भय को जन्म दिया। मानवीय भविष्य की इस संकटग्रस्तता में `वलनरविलिटि´-स्वपAभंग की पीड़ा, आत्मखोज, लोकसमाजों के संdोतों को लेकर प्रतिरोध के नये dोतों की तलाश 80 से 90 के दशक की कविता की मूल प्रवृत्ति बनी। एकान्त श्रीवास्तव, नवल शुक्ल, कुमार अम्बुज, देवीप्रसाद मिश्र निलय की कविताए¡ इन प्रवृत्तियों से उभर रही थीं। बाद में पवन करण, चेतन क्राçन्त, पंकज चतुवेüदी, व्योमेश शुक्ल इत्यादि अनेक कवि इस समय की संकटग्रस्तता की रचनात्मक अभिव्यक्ति करते हैं। राजनीति के खुले रूपों के अतिरिक्त राजनीतिक के नये सन्दभोZ में विकसित हो रहे रूपों की रचनात्मक तलाश की इस दौर के कवियों की कोशिशों को मिसरीड किया गया, क्योंकि चश्मा पुराना था, और इमजेüन्सी के दौरान के उभरे चश्मे से उन्हें देखा गया। यह नहीं समझा गया कि इस दौर में विश्व इतिहास एक बड़े अभिशाप का शिकार हो गया है। दुनिया एक धु्रवीय होने जा रही है और पूरी दुनिया एक बा$जार में तब्दील होने जा रही है। प्रतिरोध एवं राजनीति के ऑबवियस `फार्म्स´ खतरे में हैं, नये प्रतिरोधी रूपों की तलाश दृष्टि, विचार एवं रचना के लिए $जरूरी हो गये हैं। 80-90 के दौर में ही भारतीय जनतांत्रिक राजनीति फ्रैक्चर्ड होती है। सत्ता की केन्द्रीयता टूटती है। उपेक्षितों की राजनीति बलवती होती है, नये सामाजिक समूह भारतीय जनतांत्रिक राजनीति में महžवपूर्ण होते जाते हैं। यह सब सामाजिक, राजनीतिक प्रक्रियाए¡ हमारे आलोचनात्मक चेतना बोध एवं रचनात्मक स्फेयर में महžवपूर्ण परिवर्तन ला रही थीं।
भारतीय राजसत्ता सिकुड़ती जा रही है। नयी आर्थिक नीति लागू हो रही है। ग्लोबलाइजेशन की आधार भूमि के लिए बा$जारीकरण एवं प्राइवेटाइजेशन जैसी आर्थिक एवं राजनीतिक प्रक्रियाए¡ चल रही हैं। 80 से 90 के दौर में बा$जार कन्ज्यूमरिज़्म एवं नये तकनीक के साथ नये सूचना संजाल इन्टरनेट बलवान हो रहा था। रूस के पतन के बाद अमेरिका की आक्रामकता बढ़ने लगी थी, इराक पर बार-बार आक्रमण हो रहे थे, इराक में ही नहीं दुनिया में अच्छी, सुन्दर, नाजुक ची$जों, भावनाओं एवं सम्बन्धों पर घातक आघात हो रहे थे। इस दौर में उभर रही कविता एवं कहानी (उदय प्रकाश, अखिलेश जैसे सशक्त कथाकार) ला¡ग नाइन्टीज के इन आघातों, परिवर्तनों एवं दंशों को अपनी रचना में बाणी दे रहे थे।
एक तरफ आधुनिकता का प्रोजेक्ट अनफिनिस्ड था। इसके पॉजीटिव योगदानों के साथ-साथ ऑप्रेसिव प्रभाव ज़्यादा मुखर होने लगे थे। इसी खण्ड में आधुनिकता के प्रोजेक्ट के क्रिटिक के रूप में उत्तर आधुनिकता आ रही थी। ऐसे में इस दौर में जिन कवियों एवं कथाकारों का मानस बन रहा था, उनके लिए ची$जों, परिवर्तनों एवं संघटनाओं को समझने की सरल गणित गड़बड़ा चुकी थी। इस गड़बड़ाये सरल गणित, में जो जटिल रचनात्मक भावबोध बन रहे थे, इन्हें आज तक न ठीक से समझा गया है, न ही कुछ आलोचनाओं को छोड़कर इन पर ठीक से आलोचनात्मक बातचीत हुई है। साहित्य में विषय एवं एजेण्डे बदल रहे थे। साम्प्रदायिकता का विषय तो था, पर तरह-तरह का आतंकवाद प्रभावी हो रहा था, सामूहिक संहार का खतरा बढ़ रहा था, पर्यावरण, उपेक्षित समुदायों के प्रश्न, सबाल्टनü प्रश्न महžवपूर्ण हो रहे थे। दलित प्रश्न खड़े हो रहे थे, नारी प्रश्न उभर रहे थे। इस दौर के रचनाकार इन नये सवालों से जूझ रहे थे, जो 70-80 के दौर के रचनाकारों के लिए महžवपूर्ण नहीं था।
पर 70-80 के दौर में उभरी आलोचनात्मक दृष्टि एवं टाइप्स से ही `ला¡ग नाइन्टीज´ 80-90 से 90 से 2000, जिसका विस्तार यह इक्कसवीं सदी है, को देखा जा रहा है। ला¡ग नाइन्टीज मोबाइल, एस.एम.एस., टेलीविजन, नेट, नये सूचना संजालों से बने एक वचुüवल कम्युनिटी एवं वर्चुअल रियलिटी से टकरा रहा है, जहा¡ 80 के पूर्व के रियलिटी (यथाथü) का अर्थ बदल चुका है। महाकाव्यात्मक (रामायण, महाभारत) मिथक से इतर हम एक नये `मिथिक टाइम´, जो इस वर्चुअल स्फेयर ने तैयार किया है, से गु$जर रहे हैं। ग्लोबलाइजेशन, बा$जार, उसकी सुविधा, सुख एवं उसकी हिंसा भी `कुछ के सुख पर अनेकों के दुख´ को देख रही इसी पीढ़ी की दुविधा की रचनात्मकता, जो आज हमारे सामने है, उक्त समय सन्दर्भ पर विचार करते हुए मूल्यांकन की नयी दिशाओं की ओर संकेत करती है। ऐसे में इस कालखण्ड के रचनाकारों की आलोचनात्मकता, उनके औ$जार, उनके चश्मे को ला¡ग नाइन्टीज के समय के इतिहास के सन्दर्भ में देखने की रचनात्मक आवश्यकता है।

इकहरे सपनों के दिनों में कविता

अजय तिवारी

बीजिंग ओलम्पिक का नारा है : एक विश्व एक स्‍वप्‍न।

कविता के लिए यह कठिन समय है। एक विश्व होने के कारण तो शायद उतना नहीं, हां, एक स्‍वप्‍न होने के कारण ज़रूर।
फिर भी कविता बहुत लिखी जा रही है। एक स्‍वप्‍न यात्री एक दुनिया में रहने वाले विभिन्न प्रकार के जनसमुदाय अपनी अस्मिता को सबसे बढ़कर कविता में ही अभिव्यक्त कर रहे हैं।
यह अद्भुत विडम्बना है कि सबसे कठिन समय में सबसे ज़्यादा लिखी जा रही है कविता। क्या इसी में कविता की ताकत और उसकी सम्भावना नहीं झलकती?
जीवन को जिस आ¡ख से कविता देखती है, वह कवि की निजी होती है। इसलिए उसमें दृश्य का अनोखापन और स्‍वप्‍न की अन्तरंगता एक साथ पाई जाती है। दोनों मिलकर उसकी अभिव्यक्ति को विशेष बनाती हैं। सब जिस दृश्य को देखते हैं, कवि उसी को सबकी तरह नहीं देखता। वह `परिचित जगहों´ के `अपरिचित कोने´ भी देख सकता है और परिचित दृश्यों के अपरिचित मर्म भी पहचान सकता है। (अपरिचित जगहों में ही यात्रा करने वाले विलक्षणता-प्रेमियों की बात य नहीं की जा रही है।) कोई भी कवि इनमें कौन-सा काम करता है, यह उसकी क्षमता, रुचि और प्रवृत्ति पर निर्भर करता है।

विशेषता का अर्थ वि-शेषता है, अçद्वतीयता नहीं। अçद्वतीय होने पर दूसरों से अपनी निजता का साझा नहीं रह जाता। तब संवाद और सम्प्रेषण की गुंजाइश नहीं बचती। अभिव्यक्ति पर्याप्त होती है। बल्कि और आगे बढ़ने पर अनुभूति ही पर्याप्त होती है क्योंकि उसे गू¡गे के गुड़ की तरह `अद्वितीय´ व्यक्ति तक ही ब¡धे रहना है। इसी बात को सिद्धान्त का रूप देते हुए कहा गया है कि `मौन भी अभिव्यंजना है!´
बेचारे भक्तकवि इतने अद्वितीय नहीं थे, न अçद्वतीयता के फेर में पड़ते थे। वे जानते थे कि उनकी अनुभूति हर कोई नहीं समझ सकता। लेकिन जिसका दर्द मिलता-जुलता है, वह तो समझ ही सकता है। `जेहिके पा¡व न फाट बेवाई। सोइ का जानै पीर पराई।´ पीड़ा तब तक परायी है जब तक उसे अपनी पीड़ा की तरह अनुभव नहीं करते। अपनी पीड़ा की तरह तभी अनुभव करेंगे जब अपने पैर में भी बिवाई फटी होगी।
भक्तों के य यह अनुभूति बार-बार आती है। `घायल की गति घायल जाण्या¡ और न जाण्या¡ कोय।´ लेकिन यह आग्रह कहीं नहीं है कि मेरे अलावा कोई घायल नहीं है, किसी दूसरे के पैर में बिवाई नहीं फटी है। बात इतनी ही है कि हर कोई मेरी तरह घायल नहीं है। लेकिन जो घायल होगा, वह मेरा दर्द समझेगा। दर्द विशेष है, अçद्वतीयता एक को दूसरे से विçच्छन्न करती है। दिलचस्प है कि अçद्वतीय होने का दावा दरबारी कवि पेश करते थे, जिन्हें प्रतिद्वंçद्वयों पर विजय पाकर अपना स्थान सुरक्षित करना होता था। विशेषता और अçद्वतीयता का यह $फर्क उत्तर-आधुनिक समय तक चला आया है।
हिन्दी की गति न्यारी है। यह बात हम जानते हैं। उसे फिर-फिर जानने का मौका भी पाते हैं। एक बार ऐसा हुआ कि कविता रूठ कर कहीं चली गयी थी। शायद राजनीतिक मुहावरों के बीहड़ में खो गयी थी। उसे बड़े परिश्रम से `वापस´ लाना पड़ा। वह काफी ठसक से वापस आयी। जिस ठसक से मुकुट बिहारी सरोज ने कहा था कि- `भीड़-भाड़ में क्या करना, कुछ हट-के हट-के चलो!´ तो कविता भी भीड़-भाड़ वाले इलाके से हटकर फूल-पत्ती वाले सुरम्य वातावरण में `वापस आयी´!
कविता को वापस लाने वाले समझते थे और उनके प्रभाव से कई नामी-गिरामी प्रगतिशील और जनवादी कवि भी समझने लगे थे कि गोला-बारूद, संघर्ष-हड़ताल, खून-पसीना जैसी बुरी-बुरी ची$जों में रह कर कविता का बनाव-सिंगार ही नहीं, रूप-रंग भी बिगड़ जायेगा। लेकिन कई `क्राçन्तकारी´ कवि, जो मुझे व्यक्तिगत रूप से नापसन्द हैं, वे इन समझदारों से ज़्यादा विश्वसनीय हैं। लगभग निषेधवाद की सीमा तक चले जाने वाले एक `क्राçन्तकारी´ कवि ने जब कविता पर विचार किया तो वस्तुस्थिति के काफी करीब आकर अनुभव किया कि कविता `भीड़ में अकेले आदमी का एकालाप´ है।
बेशक यह कवि भीड़-भाड़ के बीच में है, चौरासी बंगले और वसंत कुंज का वासी नहीं! उसकी आत्मा इतनी परिष्कृत नहीं हुई है कि उसे `भीड़ में मैलखोरी गंध´ के सिवा अपनी गंध न मिले। लेकिन उसमें भी इतनी समझ है कि `कविता अकेले ही काम करने का तकाजा करती है।´ इसीलिए भीड़ में भी कविता का क्षण `अकेले´ हो जाने का और एकालाप का क्षण होता है।
`भीड़´ और `अकेले´ में जो द्वंद्वात्मकता है, वह वस्तुस्थिति का सही बयान है। बिलकुल अकेला होना अçद्वतीय होना है और भीड़ में गर्क हो जाना विशेषता खो देना है। रचना के सन्दर्भ में पहली स्थिति अपारदशिüता पैदा करती है, दूसरी स्थिति नारेबा$जी।
य एक बात कह देना मुनासिब है। बिल्कुल अपारदशीü-अçद्वतीय रचना शिल्प के हुनर में बदल जाती है। उसमें निजता, विशेषता का इस $कदर लोप हो जाता है कि एक से दूसरे की अभिव्यक्ति में अन्तर पहचानना भी मुश्किल हो जाता है।
दूसरी तर$फ, कोई अच्छा नारा भीड़ नहीं देती, भीड़ से तादात्म्य स्थापित करने वाला कवि देता है। `हर $जोर-जुलुम की टक्कर में, हड़ताल (संघर्ष) हमारा नारा है´ - ऐसा एक नारा देने के लिए शंकर शैलेन्द्र की $जरूरत पड़ती है। हर कवि नारा नहीं देता, हर नारेबा$ज कवि नहीं होता। लेकिन ऐतिहासिक नारा एक कवि ही देता है, जो अपनी सर्जनात्मकता को सामूहिक आकांक्षा से अभिन्न कर लेता है।
भीड़ से अकेले आदमी का रिश्ता बदलता रहता है लेकिन टूटता नहीं। जब जनता भीड़ बन जाती है और कवि अकेला हो जाता है, तब दोनों के बीच सम्बन्ध के सूत्र बिखर जाते हैं। वह कविता के लिए कठिन समय होता है। आज कुछ-कुछ ऐसा ही समय है। एक हैरान करने वाली बात यह है कि भीड़ जितनी एक-सी होती है, अकेले-अçद्वतीय लोगों का समुदाय भी उतना ही एक-सा होता है। भीड़ और अçद्वतीयता, दोनों विशेषताओं का लोप करते हैं। विशेषता की पहचान भी `शेष´ के सन्दर्भ में होती है। इसलिए विशेषता सम्बन्ध की धारणा है। जो शेष से अलग है, उसकी पहचान की कोई कसौटी नहीं है और जो शेष में समाहित है, उसकी पहचान का प्रश्न ही नहीं है।
`एक विश्व एक स्‍वप्‍न´ की व्यापक स्‍वप्‍नीकृति ने कविता की कठिनाइया¡ बढ़ायी हैं। `रावण रथी विरथ रघुवीरा´ से लेकर `इस दुनिया में दो दुनिया हैं, जिनके नाम $गरीब-अमीर´ तक हिन्दी काव्य-परम्परा में जो लोग विश्व के अन्तविüरोधों के बारे में लिखते आये थे, वे सहसा झूठे पड़ गये। उनका ख्याल भी झूठा पड़ गया, जो कहते थे कि दो दुनियाओं की दो अर्थव्यवस्थाओं में प्रतिस्पर्धा है। वे भी झूठे सिद्ध हुए, जो मानते थे एक विकासशील `तीसरी दुनिया´ है, जिसकी अपनी विरासत और चुनौतिया¡ हैं। अब `एक´ ही दुनिया है और एक ही `स्‍वप्‍न´ है इसलिए विविधता-बहुलता-भिन्नता का कोई वास्तविक अर्थ नहीं रहा।
`एक´ और `एकता´ में $फर्क है। एकता विभिन्न लोगों को बा¡धती है। इसलिए वह एकरूपता को अस्‍वप्‍नीकार करती है और विशेषता (विभिन्नता) को सुरक्षित रखती है। `एक विश्व एक स्‍वप्‍न´ उन विभिन्नताओं को बा¡धने के बजाय उनके निषेध का सिद्धान्त है। यह एकधु्रवीय दुनिया के औचित्य का नारा है। यह चक्रवतीü महाशक्ति के वर्चस्‍वप्‍न की घोषणा है। चीन और अमरीका की अर्थव्यवस्थाए¡ अगर `एक´ हैं तो यह नारा प्रतिरोध और विकल्प की सम्भावना का निषेध है। यह एक लम्बी रणनीति की वर्तमान परिणति है। इस रणनीति का बीजारोपण 1944 में, दूसरा विश्वयुद्ध खत्म होने से पहले, ब्रतों-वुड्स समझौते से हुआ था, उसक वटवृक्ष 1991 में सोवियत संघ के टूटने के साथ फैला और उसके विजय की अçन्तम घोषणा 2008 में बीजिंग ओलम्पिक में गू¡जी।
अन्यथा न लिया जाये तो यह बात भी ध्यान ख्ाींचती है कि झूठे वे ही नहीं सिद्ध हुए, जो दुनिया के अन्तविüरोधों की बात करते थे। झूठे वे भी सिद्ध हुए, जो कहने लगे थे कि इतिहास का अन्त हो गया है, सपनों का अन्त हो गया है! अब वे ही कह रहे हैं कि एक ही विश्व है और उसमें एक ही `स्‍वप्‍न´ है!! एक विश्व का अर्थ है एकधु्रवीय विश्व, विजयी शक्ति का विश्व पर वर्चस्‍वप्‍न। और अगर यह सच है तो न विजयी अकेला हो सकता है, न विश्व एक हो सकता है। उसमें वर्चस्‍वप्‍न और अधीनता का सम्बन्ध होगा। और तो और, अगर `स्‍वप्‍न´ है तो यह निरा खामख्ायाली है कि उसे बा¡धकर `एक´ बनाये रखा जा सकता है। इस `एक´ विश्व के एक `स्‍वप्‍न´ में हौसला ज़्यादा है, यथार्थ कम, हाला¡कि अभी वही एकमात्र सचाई जान पड़ती है।
इस `एक´ यथार्थ को लागू करने का संकल्प भारत में भी कम नहीं है। कविता के `वापस´ आने पर उसे क्राçन्त की तपती हुई भूमि से हटा कर प्रकृति के जिस स्‍वप्‍नपिAल वातावरण में बसाने का प्रयत्न किया गया था, वह इसी दिशा में एक सांस्कृतिक प्रयत्न था। आज राजनीतिक स्तर पर परमाणु ऊर्जा के बहाने पूरे देश को `एक विश्व´ के सपने से बा¡ध देने की कोशिश रंग लाती दिख रही है। राजनीति की तो नहीं कहते, लेकिन साहित्य में यह मुश्किल $जरूर थी कि न तो `वापसी´ के दौर में कोई एक अकेला स्‍वप्‍नर था, न `एक विश्व´ के वर्तमान दौर में है। साहित्य के इस प्रसंग पर थोड़ा विचार करें।
आठवें दशक के अन्त में `वापस´ आने के बाद कविता का चेहरा-मोहरा कैसा था, इसे तथ्यों से पहचाना जायेगा। कुछ उत्साही क्राçन्तकारी उसे छायावाद की वापसी भी कहते थे। लेकिन उसकी पृष्ठभूमि केवल गुरिल्ला कविता नहीं थी, जिसके बारूद-जंगल-खून-छापामारी की प्रतिक्रिया में फूल-पत्ती-बादल-चिडि़या की दुनिया आबाद हुई थी। उसे आपातकाल के सत्तावादी एकतंत्र की प्रतिक्रिया भी कहा गया था, जिसमें प्रकृति की कोमल-स्‍वप्‍नच्छन्द इकाइया¡ मुक्ति का सार व्यंजित करती थीं।
इन दो बातों के अलावा एक बात की चर्चा और होती रही है कि समान दिखने वाले उपमानों में भिन्न-भिन्न जीवन-स्थितियों और परस्पर-विरोधी सांस्कृतिक-वैचारिक रुझानों की अभिव्यक्ति हुई है। इसीलिए `वापस´ आने वाली कविता के भीतर कुलीनतावादी और जनवादी प्रवृत्तियों का विकास अलग-अलग दिशाओं में हुआ। एक धारा `संस्कृति´ के प्रकृतिवादी आग्रह में जीवन के प्रश्नों को भुला रही थी, दूसरी धारा संस्कृति के प्रश्नों को सामाजिक-राजनीतिक विषयवस्तु से सम्पन्न कर रही थी। इस तरह कविता का परिदृश्य तत्कालीन भारतीय जीवन के अन्तविüरोधों को वहन कर रहा था।
`एक विश्व एक स्‍वप्‍न´ के नारे से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि सांस्कृतिक विकास को केवल लोकतांत्रिक शक्तिया¡ नहीं प्रभावित करतीं। उसे प्रभुत्वशाली शक्तिया¡ भी प्रभावित करती हैं। आज का समय इस मायने `एक विश्व एक स्‍वप्‍न´ को अवश्य चरितार्थ करता है कि प्रत्येक देश के प्रभुत्वशाली तबके भूमण्डलीय प्रभुत्व की शक्तियों के साथ साझेदारी (ताबेदारी) करने के लिए व्यग्र दिखायी देते हैं।
इस प्रक्रिया की शुरुआत दो स्तरों पर हुई। विश्व को `एक´ स्‍वप्‍न में ढालने वाले पृष्ठभूमि में रहकर सूत्र-संचालन करते रहे और `दूसरी´ एवं `तीसरी´ दुनिया के शासक उस सूत्र से संचालित होने लगे। यह संयोग की बात नहीं है कि भारत में राम जन्मभूमि का अभियान और सोवियत संघ मेंे `पेरेस्त्रोइका´ (पुनर्गठन) का अभियान लगभग साथ-साथ चलना शुरू हुआ, भारत में बावरी मस्जिद का विध्वंस और सोवियत संघ में समाजवाद का विध्वंस भी लगभग साथ-साथ हुआ।
जब यह सारी उथल-पुथल शुरू हुई, उस समय `वापस´ आने के बाद समकालीन कविता अपने अन्तद्वüन्द्व के भीतर से रास्ते बना रही थी और उन रास्तों की अलग-अलग पहचान कायम होने लगी थी। स्‍वप्‍नाभाविक था कि इन परिस्थितियों में साहित्यिक विकास की गति अवरुद्ध या परिवर्तित होती। इस उथल-पुथल के समय जो नयी कविता पीढ़ी उभर रही थी, उसके सामने साम्प्रदायिक उन्माद और `पेरेस्त्रोइका´ का जुनून एक आकçस्मक विस्फोट की तरह आये। इस अप्रत्याशित वास्तविकता का सामना करने के लिए उसके पास पहले से उपकरण मौजूद नहीं थे। जो थे, वे अपर्याप्त थे। परिवर्तनकारी राजनीति हतप्रभ थी और अग्रज पीढ़ी अस्त-व्यस्त हो गयी थी। इस पीढ़ी का संघर्ष काफी जटिल था। उसके पास बने-बनाये उत्तर नहीं थे। उसे किसी से वैचारिक सहायता नहीं थी।
एक तरफ समकालीन कविता का अनेक अन्तर्धाराओं में विखण्डन, दूसरी तरफ नयी उभरने वाली पीढ़ी का आत्मसंघषü, हिन्दी कविता के विकास की दिशा का$फी बदल गयी। जैसे 1857 के बाद भारत का इतिहास पहले जैसा नहीं रहा, वैसे ही 1991 के बाद दुनिया का नक्शा पहले जैसा नहीं रहा। कवि की संवेदना पर परिस्थितियों का अक्स सीधा नहीं पड़ता। कविता की `वापसी´ वाली समूची पीढ़ी को ले लें, उसमें मौजूद धाराओं-अन्तर्धाराओं से हटकर एक समय की पूरी काव्य-संवेदना पर ध्यान दें तो आपाताकाल के बाद महत्व पाने वाले राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, उदय प्रकाश, सोमदत्त, विनोदकुमार शुक्ल, अरुण कमल, प्रभात त्रिपाठी, अशोक वाजपेयी इत्यादि के मुकाबले एकान्त श्रीवास्त, लीलाधर मंडलोई, बद्री नारायण, नवल शुक्ल, कुमार अम्बुज, केशव तिवारी, मांझी अनंत इत्यादि की पीढ़ी बिलकुल भिन्न तरीके से प्रतिक्रिया करती है।
पिछली पीढ़ी की पहचान अगर प्रकृति के परिदृश्य से हुई तो अगली पीढ़ी ने उस प्रकृति को लोकसंस्कृति से जोड़ दिया। इसमें सन्देह नहीं कि लोकसंस्कृति के प्रति कहीं-कहीं भावुक, अतिरंजनापूर्ण रुझान प्रकट हुआ, लेकिन उस दौर के उल्लेखनीय कवियों ने `लोक´ को शरणस्थली बनाने के बजाय dोत बनाया। बिलकुल अप्रत्याशित नयी दुनिया का सामना करने के लिए उन्होंने य से ऊर्जा और उपकरण लिये। बेशक, उसमें विचलन है, आत्मरक्षा की हद तक पहु¡चने वाला आग्रह है, प्रकटत: वह राजनीति से विमुख है, संवेदना के लिए बौçद्धकता को छोड़ने का आभास भी है, लेकिन वह जिस बदली हुई दुनिया का सामना कर रही थी, उससे निपटने का तरीका राजनीति ने भी तब तक नहीं खोजा था। अगर कविता में दिशा की अस्पष्टता और संवेदना की अतिशयता थी तो समझ में आता है।
अकस्मात् सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर प्रतिक्राçन्त का विस्फोट तथा साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य पर लोकसंवेदना का विस्फोट, दोनों के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध को अब तक अनदेखा किया गया है और इस संवेदनातिशयता को विचारशून्यता के रूप में देखने की कोशिश की गयी है। सच तो यह है कि राजेश जोशी-मंगलेश डबराल-अशोक वाजपेयी की पीढ़ी भी 1991 के बाद की दुनिया के लिए तुरन्त और आसानी से रास्ता नहीं खोज सके। लेकिन इस पीढ़ी का सौभाग्य था कि उसे ढेरों आलोचक नसीब हुए। एकान्त-मंडलोई-बद्री की पीढ़ी को यह नसीब नहीं हुआ। बल्कि हुआ यह कि वरिष्ठ हो चले आलोचकों ने प्रतिशोध-पूर्ण व्यवहार किया और कहने-सुनने लायक नये आलोचक आये नहीं।
देर से ही सही, उसके सही सन्दर्भ को समझा जाना आवश्यक है। य यह बात कही जानी चाहिए कि उस कविता में प्रकृति, जीवन, राजनीति और मानव-सम्बन्धों के इतने अछूते प्रसंग मौजूद हैं कि उन्हें एकत्र करने पर एक भरा-पूरा रंगारंग जीवित संसार सामने आ जायेगा। प्रगतिशील धारा को छोड़ दें तो पूरी नयी कविता उसका मुकाबला नहीं कर सकती। इस वैविध्य और सजीवता में ही उसके प्रयोग की सार्थकता है।
साहित्य में आज हम अçस्मताओं की जो राजनीति देख रहे हैं, उसका सम्बन्ध बदली हुई दुनिया से है। अçस्मता की यह राजनीति उस एकधु्रवीय दुनिया का प्रतिफलन भी है और प्रतिशोध भी। इसलिए वह `एक विश्व एक स्‍वप्‍न´ के बदले छोटे-छोटे नाना ब्रrााण्डों का दृश्य निमिüत करती है। `वापसी´ वाली कविता और `अçस्मता´ वाली कविता के बीच `लोकसंवेदना´ वाली जो कविता मौजूद है, उसकी चुनौतिया¡ ज़्यादा गम्भीर थीं। पुरानी दुनिया नष्ट हो गयी थी, नयी दुनिया बनी नहीं थी, पुराने सपने जीवित थे, नयी आशा दिखती नहीं थी, ऐसे में अस्पष्टता, दिशाहीनता का आना उतना आश्चर्यजनक नहीं है, जितना अपने नये औ$जारों से प्रतिरोध का प्रयत्न करना। फूल-पत्ती उनके यहा¡ भी हैं लेकिन सçब्$जयों के फूल हैं जिन्हें भावुक संवेदनाओं ने उपयोगिता का क्षेत्र समझकर छोड़ दिया है। इसलिए अपनी मानवीय संवेदनशीलता के सहारे उसने `प्रतिरोध की कवितावली´ रची और `वापसी´ वाले अग्रजों से अपनी शर्त पर अपना नाता जोड़ने और तोड़ने का उपक्रम किया। उसने हिम्मत नहीं हारी।
परवतीü कविता `एक विश्व´ से इतनी आक्रान्त है कि वह अçस्मता की राजनीति चाहे जितनी करे, प्रतिरोध की राजनीति में अपने भरसक नहीं उलझती। वह `एक विश्व´ के विजय का उत्सव मनाती है, उसमें भागीदारी मा¡गती है। उसे परिवर्तन में विश्वास नहीं रह गया है। इसलिए वह पाना तो सब कुछ चाहती है, खोने के लिए कुछ भी तैयार नहीं है। इस बा$जारवादी प्रभाव से भूमण्डलीय दौर का सृजनकर्म अछूता नहीं है।
वह प्रतिरोध करे या न करे, लेकिन वह बा$जार का नियन्ता नहीं, हिस्सेदार है, इसलिए उसमें उत्पीडि़त होने का भाव और उत्पीड़न के प्रति असन्तोष है। यही बात कविता को बा$जार से अलग करती है। बा$जार का उसूल है : पैसा आना चाहिए, शरम तो आनी-जानी है। लेकिन इतने बेशर्म वे भी नहीं थे, जो अपने को `सौदागर कवि´ कहते थे, दरबारों के आश्रय में ही जीविका पाते थे! इसलिए `सौदागर´ होने और `कवि´ होने में एक çद्वत्य है। `अçस्मता´ अगर बा$जार के `ब्रांड´ की तरह विशेष पहचान है तो वह विषमतापूर्ण सम्बन्धों की प्रतिक्रिया भी है। यह ची$ज उसे `एक विश्व एक स्‍वप्‍न´ की दमघोंटू एकरूपता से अलग खड़ा करती है। कविता का अपने इस रूप में बने रहना आश्वस्त करता है।