Sunday, March 1, 2009

इकहरे सपनों के दिनों में कविता

अजय तिवारी

बीजिंग ओलम्पिक का नारा है : एक विश्व एक स्‍वप्‍न।

कविता के लिए यह कठिन समय है। एक विश्व होने के कारण तो शायद उतना नहीं, हां, एक स्‍वप्‍न होने के कारण ज़रूर।
फिर भी कविता बहुत लिखी जा रही है। एक स्‍वप्‍न यात्री एक दुनिया में रहने वाले विभिन्न प्रकार के जनसमुदाय अपनी अस्मिता को सबसे बढ़कर कविता में ही अभिव्यक्त कर रहे हैं।
यह अद्भुत विडम्बना है कि सबसे कठिन समय में सबसे ज़्यादा लिखी जा रही है कविता। क्या इसी में कविता की ताकत और उसकी सम्भावना नहीं झलकती?
जीवन को जिस आ¡ख से कविता देखती है, वह कवि की निजी होती है। इसलिए उसमें दृश्य का अनोखापन और स्‍वप्‍न की अन्तरंगता एक साथ पाई जाती है। दोनों मिलकर उसकी अभिव्यक्ति को विशेष बनाती हैं। सब जिस दृश्य को देखते हैं, कवि उसी को सबकी तरह नहीं देखता। वह `परिचित जगहों´ के `अपरिचित कोने´ भी देख सकता है और परिचित दृश्यों के अपरिचित मर्म भी पहचान सकता है। (अपरिचित जगहों में ही यात्रा करने वाले विलक्षणता-प्रेमियों की बात य नहीं की जा रही है।) कोई भी कवि इनमें कौन-सा काम करता है, यह उसकी क्षमता, रुचि और प्रवृत्ति पर निर्भर करता है।

विशेषता का अर्थ वि-शेषता है, अçद्वतीयता नहीं। अçद्वतीय होने पर दूसरों से अपनी निजता का साझा नहीं रह जाता। तब संवाद और सम्प्रेषण की गुंजाइश नहीं बचती। अभिव्यक्ति पर्याप्त होती है। बल्कि और आगे बढ़ने पर अनुभूति ही पर्याप्त होती है क्योंकि उसे गू¡गे के गुड़ की तरह `अद्वितीय´ व्यक्ति तक ही ब¡धे रहना है। इसी बात को सिद्धान्त का रूप देते हुए कहा गया है कि `मौन भी अभिव्यंजना है!´
बेचारे भक्तकवि इतने अद्वितीय नहीं थे, न अçद्वतीयता के फेर में पड़ते थे। वे जानते थे कि उनकी अनुभूति हर कोई नहीं समझ सकता। लेकिन जिसका दर्द मिलता-जुलता है, वह तो समझ ही सकता है। `जेहिके पा¡व न फाट बेवाई। सोइ का जानै पीर पराई।´ पीड़ा तब तक परायी है जब तक उसे अपनी पीड़ा की तरह अनुभव नहीं करते। अपनी पीड़ा की तरह तभी अनुभव करेंगे जब अपने पैर में भी बिवाई फटी होगी।
भक्तों के य यह अनुभूति बार-बार आती है। `घायल की गति घायल जाण्या¡ और न जाण्या¡ कोय।´ लेकिन यह आग्रह कहीं नहीं है कि मेरे अलावा कोई घायल नहीं है, किसी दूसरे के पैर में बिवाई नहीं फटी है। बात इतनी ही है कि हर कोई मेरी तरह घायल नहीं है। लेकिन जो घायल होगा, वह मेरा दर्द समझेगा। दर्द विशेष है, अçद्वतीयता एक को दूसरे से विçच्छन्न करती है। दिलचस्प है कि अçद्वतीय होने का दावा दरबारी कवि पेश करते थे, जिन्हें प्रतिद्वंçद्वयों पर विजय पाकर अपना स्थान सुरक्षित करना होता था। विशेषता और अçद्वतीयता का यह $फर्क उत्तर-आधुनिक समय तक चला आया है।
हिन्दी की गति न्यारी है। यह बात हम जानते हैं। उसे फिर-फिर जानने का मौका भी पाते हैं। एक बार ऐसा हुआ कि कविता रूठ कर कहीं चली गयी थी। शायद राजनीतिक मुहावरों के बीहड़ में खो गयी थी। उसे बड़े परिश्रम से `वापस´ लाना पड़ा। वह काफी ठसक से वापस आयी। जिस ठसक से मुकुट बिहारी सरोज ने कहा था कि- `भीड़-भाड़ में क्या करना, कुछ हट-के हट-के चलो!´ तो कविता भी भीड़-भाड़ वाले इलाके से हटकर फूल-पत्ती वाले सुरम्य वातावरण में `वापस आयी´!
कविता को वापस लाने वाले समझते थे और उनके प्रभाव से कई नामी-गिरामी प्रगतिशील और जनवादी कवि भी समझने लगे थे कि गोला-बारूद, संघर्ष-हड़ताल, खून-पसीना जैसी बुरी-बुरी ची$जों में रह कर कविता का बनाव-सिंगार ही नहीं, रूप-रंग भी बिगड़ जायेगा। लेकिन कई `क्राçन्तकारी´ कवि, जो मुझे व्यक्तिगत रूप से नापसन्द हैं, वे इन समझदारों से ज़्यादा विश्वसनीय हैं। लगभग निषेधवाद की सीमा तक चले जाने वाले एक `क्राçन्तकारी´ कवि ने जब कविता पर विचार किया तो वस्तुस्थिति के काफी करीब आकर अनुभव किया कि कविता `भीड़ में अकेले आदमी का एकालाप´ है।
बेशक यह कवि भीड़-भाड़ के बीच में है, चौरासी बंगले और वसंत कुंज का वासी नहीं! उसकी आत्मा इतनी परिष्कृत नहीं हुई है कि उसे `भीड़ में मैलखोरी गंध´ के सिवा अपनी गंध न मिले। लेकिन उसमें भी इतनी समझ है कि `कविता अकेले ही काम करने का तकाजा करती है।´ इसीलिए भीड़ में भी कविता का क्षण `अकेले´ हो जाने का और एकालाप का क्षण होता है।
`भीड़´ और `अकेले´ में जो द्वंद्वात्मकता है, वह वस्तुस्थिति का सही बयान है। बिलकुल अकेला होना अçद्वतीय होना है और भीड़ में गर्क हो जाना विशेषता खो देना है। रचना के सन्दर्भ में पहली स्थिति अपारदशिüता पैदा करती है, दूसरी स्थिति नारेबा$जी।
य एक बात कह देना मुनासिब है। बिल्कुल अपारदशीü-अçद्वतीय रचना शिल्प के हुनर में बदल जाती है। उसमें निजता, विशेषता का इस $कदर लोप हो जाता है कि एक से दूसरे की अभिव्यक्ति में अन्तर पहचानना भी मुश्किल हो जाता है।
दूसरी तर$फ, कोई अच्छा नारा भीड़ नहीं देती, भीड़ से तादात्म्य स्थापित करने वाला कवि देता है। `हर $जोर-जुलुम की टक्कर में, हड़ताल (संघर्ष) हमारा नारा है´ - ऐसा एक नारा देने के लिए शंकर शैलेन्द्र की $जरूरत पड़ती है। हर कवि नारा नहीं देता, हर नारेबा$ज कवि नहीं होता। लेकिन ऐतिहासिक नारा एक कवि ही देता है, जो अपनी सर्जनात्मकता को सामूहिक आकांक्षा से अभिन्न कर लेता है।
भीड़ से अकेले आदमी का रिश्ता बदलता रहता है लेकिन टूटता नहीं। जब जनता भीड़ बन जाती है और कवि अकेला हो जाता है, तब दोनों के बीच सम्बन्ध के सूत्र बिखर जाते हैं। वह कविता के लिए कठिन समय होता है। आज कुछ-कुछ ऐसा ही समय है। एक हैरान करने वाली बात यह है कि भीड़ जितनी एक-सी होती है, अकेले-अçद्वतीय लोगों का समुदाय भी उतना ही एक-सा होता है। भीड़ और अçद्वतीयता, दोनों विशेषताओं का लोप करते हैं। विशेषता की पहचान भी `शेष´ के सन्दर्भ में होती है। इसलिए विशेषता सम्बन्ध की धारणा है। जो शेष से अलग है, उसकी पहचान की कोई कसौटी नहीं है और जो शेष में समाहित है, उसकी पहचान का प्रश्न ही नहीं है।
`एक विश्व एक स्‍वप्‍न´ की व्यापक स्‍वप्‍नीकृति ने कविता की कठिनाइया¡ बढ़ायी हैं। `रावण रथी विरथ रघुवीरा´ से लेकर `इस दुनिया में दो दुनिया हैं, जिनके नाम $गरीब-अमीर´ तक हिन्दी काव्य-परम्परा में जो लोग विश्व के अन्तविüरोधों के बारे में लिखते आये थे, वे सहसा झूठे पड़ गये। उनका ख्याल भी झूठा पड़ गया, जो कहते थे कि दो दुनियाओं की दो अर्थव्यवस्थाओं में प्रतिस्पर्धा है। वे भी झूठे सिद्ध हुए, जो मानते थे एक विकासशील `तीसरी दुनिया´ है, जिसकी अपनी विरासत और चुनौतिया¡ हैं। अब `एक´ ही दुनिया है और एक ही `स्‍वप्‍न´ है इसलिए विविधता-बहुलता-भिन्नता का कोई वास्तविक अर्थ नहीं रहा।
`एक´ और `एकता´ में $फर्क है। एकता विभिन्न लोगों को बा¡धती है। इसलिए वह एकरूपता को अस्‍वप्‍नीकार करती है और विशेषता (विभिन्नता) को सुरक्षित रखती है। `एक विश्व एक स्‍वप्‍न´ उन विभिन्नताओं को बा¡धने के बजाय उनके निषेध का सिद्धान्त है। यह एकधु्रवीय दुनिया के औचित्य का नारा है। यह चक्रवतीü महाशक्ति के वर्चस्‍वप्‍न की घोषणा है। चीन और अमरीका की अर्थव्यवस्थाए¡ अगर `एक´ हैं तो यह नारा प्रतिरोध और विकल्प की सम्भावना का निषेध है। यह एक लम्बी रणनीति की वर्तमान परिणति है। इस रणनीति का बीजारोपण 1944 में, दूसरा विश्वयुद्ध खत्म होने से पहले, ब्रतों-वुड्स समझौते से हुआ था, उसक वटवृक्ष 1991 में सोवियत संघ के टूटने के साथ फैला और उसके विजय की अçन्तम घोषणा 2008 में बीजिंग ओलम्पिक में गू¡जी।
अन्यथा न लिया जाये तो यह बात भी ध्यान ख्ाींचती है कि झूठे वे ही नहीं सिद्ध हुए, जो दुनिया के अन्तविüरोधों की बात करते थे। झूठे वे भी सिद्ध हुए, जो कहने लगे थे कि इतिहास का अन्त हो गया है, सपनों का अन्त हो गया है! अब वे ही कह रहे हैं कि एक ही विश्व है और उसमें एक ही `स्‍वप्‍न´ है!! एक विश्व का अर्थ है एकधु्रवीय विश्व, विजयी शक्ति का विश्व पर वर्चस्‍वप्‍न। और अगर यह सच है तो न विजयी अकेला हो सकता है, न विश्व एक हो सकता है। उसमें वर्चस्‍वप्‍न और अधीनता का सम्बन्ध होगा। और तो और, अगर `स्‍वप्‍न´ है तो यह निरा खामख्ायाली है कि उसे बा¡धकर `एक´ बनाये रखा जा सकता है। इस `एक´ विश्व के एक `स्‍वप्‍न´ में हौसला ज़्यादा है, यथार्थ कम, हाला¡कि अभी वही एकमात्र सचाई जान पड़ती है।
इस `एक´ यथार्थ को लागू करने का संकल्प भारत में भी कम नहीं है। कविता के `वापस´ आने पर उसे क्राçन्त की तपती हुई भूमि से हटा कर प्रकृति के जिस स्‍वप्‍नपिAल वातावरण में बसाने का प्रयत्न किया गया था, वह इसी दिशा में एक सांस्कृतिक प्रयत्न था। आज राजनीतिक स्तर पर परमाणु ऊर्जा के बहाने पूरे देश को `एक विश्व´ के सपने से बा¡ध देने की कोशिश रंग लाती दिख रही है। राजनीति की तो नहीं कहते, लेकिन साहित्य में यह मुश्किल $जरूर थी कि न तो `वापसी´ के दौर में कोई एक अकेला स्‍वप्‍नर था, न `एक विश्व´ के वर्तमान दौर में है। साहित्य के इस प्रसंग पर थोड़ा विचार करें।
आठवें दशक के अन्त में `वापस´ आने के बाद कविता का चेहरा-मोहरा कैसा था, इसे तथ्यों से पहचाना जायेगा। कुछ उत्साही क्राçन्तकारी उसे छायावाद की वापसी भी कहते थे। लेकिन उसकी पृष्ठभूमि केवल गुरिल्ला कविता नहीं थी, जिसके बारूद-जंगल-खून-छापामारी की प्रतिक्रिया में फूल-पत्ती-बादल-चिडि़या की दुनिया आबाद हुई थी। उसे आपातकाल के सत्तावादी एकतंत्र की प्रतिक्रिया भी कहा गया था, जिसमें प्रकृति की कोमल-स्‍वप्‍नच्छन्द इकाइया¡ मुक्ति का सार व्यंजित करती थीं।
इन दो बातों के अलावा एक बात की चर्चा और होती रही है कि समान दिखने वाले उपमानों में भिन्न-भिन्न जीवन-स्थितियों और परस्पर-विरोधी सांस्कृतिक-वैचारिक रुझानों की अभिव्यक्ति हुई है। इसीलिए `वापस´ आने वाली कविता के भीतर कुलीनतावादी और जनवादी प्रवृत्तियों का विकास अलग-अलग दिशाओं में हुआ। एक धारा `संस्कृति´ के प्रकृतिवादी आग्रह में जीवन के प्रश्नों को भुला रही थी, दूसरी धारा संस्कृति के प्रश्नों को सामाजिक-राजनीतिक विषयवस्तु से सम्पन्न कर रही थी। इस तरह कविता का परिदृश्य तत्कालीन भारतीय जीवन के अन्तविüरोधों को वहन कर रहा था।
`एक विश्व एक स्‍वप्‍न´ के नारे से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि सांस्कृतिक विकास को केवल लोकतांत्रिक शक्तिया¡ नहीं प्रभावित करतीं। उसे प्रभुत्वशाली शक्तिया¡ भी प्रभावित करती हैं। आज का समय इस मायने `एक विश्व एक स्‍वप्‍न´ को अवश्य चरितार्थ करता है कि प्रत्येक देश के प्रभुत्वशाली तबके भूमण्डलीय प्रभुत्व की शक्तियों के साथ साझेदारी (ताबेदारी) करने के लिए व्यग्र दिखायी देते हैं।
इस प्रक्रिया की शुरुआत दो स्तरों पर हुई। विश्व को `एक´ स्‍वप्‍न में ढालने वाले पृष्ठभूमि में रहकर सूत्र-संचालन करते रहे और `दूसरी´ एवं `तीसरी´ दुनिया के शासक उस सूत्र से संचालित होने लगे। यह संयोग की बात नहीं है कि भारत में राम जन्मभूमि का अभियान और सोवियत संघ मेंे `पेरेस्त्रोइका´ (पुनर्गठन) का अभियान लगभग साथ-साथ चलना शुरू हुआ, भारत में बावरी मस्जिद का विध्वंस और सोवियत संघ में समाजवाद का विध्वंस भी लगभग साथ-साथ हुआ।
जब यह सारी उथल-पुथल शुरू हुई, उस समय `वापस´ आने के बाद समकालीन कविता अपने अन्तद्वüन्द्व के भीतर से रास्ते बना रही थी और उन रास्तों की अलग-अलग पहचान कायम होने लगी थी। स्‍वप्‍नाभाविक था कि इन परिस्थितियों में साहित्यिक विकास की गति अवरुद्ध या परिवर्तित होती। इस उथल-पुथल के समय जो नयी कविता पीढ़ी उभर रही थी, उसके सामने साम्प्रदायिक उन्माद और `पेरेस्त्रोइका´ का जुनून एक आकçस्मक विस्फोट की तरह आये। इस अप्रत्याशित वास्तविकता का सामना करने के लिए उसके पास पहले से उपकरण मौजूद नहीं थे। जो थे, वे अपर्याप्त थे। परिवर्तनकारी राजनीति हतप्रभ थी और अग्रज पीढ़ी अस्त-व्यस्त हो गयी थी। इस पीढ़ी का संघर्ष काफी जटिल था। उसके पास बने-बनाये उत्तर नहीं थे। उसे किसी से वैचारिक सहायता नहीं थी।
एक तरफ समकालीन कविता का अनेक अन्तर्धाराओं में विखण्डन, दूसरी तरफ नयी उभरने वाली पीढ़ी का आत्मसंघषü, हिन्दी कविता के विकास की दिशा का$फी बदल गयी। जैसे 1857 के बाद भारत का इतिहास पहले जैसा नहीं रहा, वैसे ही 1991 के बाद दुनिया का नक्शा पहले जैसा नहीं रहा। कवि की संवेदना पर परिस्थितियों का अक्स सीधा नहीं पड़ता। कविता की `वापसी´ वाली समूची पीढ़ी को ले लें, उसमें मौजूद धाराओं-अन्तर्धाराओं से हटकर एक समय की पूरी काव्य-संवेदना पर ध्यान दें तो आपाताकाल के बाद महत्व पाने वाले राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, उदय प्रकाश, सोमदत्त, विनोदकुमार शुक्ल, अरुण कमल, प्रभात त्रिपाठी, अशोक वाजपेयी इत्यादि के मुकाबले एकान्त श्रीवास्त, लीलाधर मंडलोई, बद्री नारायण, नवल शुक्ल, कुमार अम्बुज, केशव तिवारी, मांझी अनंत इत्यादि की पीढ़ी बिलकुल भिन्न तरीके से प्रतिक्रिया करती है।
पिछली पीढ़ी की पहचान अगर प्रकृति के परिदृश्य से हुई तो अगली पीढ़ी ने उस प्रकृति को लोकसंस्कृति से जोड़ दिया। इसमें सन्देह नहीं कि लोकसंस्कृति के प्रति कहीं-कहीं भावुक, अतिरंजनापूर्ण रुझान प्रकट हुआ, लेकिन उस दौर के उल्लेखनीय कवियों ने `लोक´ को शरणस्थली बनाने के बजाय dोत बनाया। बिलकुल अप्रत्याशित नयी दुनिया का सामना करने के लिए उन्होंने य से ऊर्जा और उपकरण लिये। बेशक, उसमें विचलन है, आत्मरक्षा की हद तक पहु¡चने वाला आग्रह है, प्रकटत: वह राजनीति से विमुख है, संवेदना के लिए बौçद्धकता को छोड़ने का आभास भी है, लेकिन वह जिस बदली हुई दुनिया का सामना कर रही थी, उससे निपटने का तरीका राजनीति ने भी तब तक नहीं खोजा था। अगर कविता में दिशा की अस्पष्टता और संवेदना की अतिशयता थी तो समझ में आता है।
अकस्मात् सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर प्रतिक्राçन्त का विस्फोट तथा साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य पर लोकसंवेदना का विस्फोट, दोनों के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध को अब तक अनदेखा किया गया है और इस संवेदनातिशयता को विचारशून्यता के रूप में देखने की कोशिश की गयी है। सच तो यह है कि राजेश जोशी-मंगलेश डबराल-अशोक वाजपेयी की पीढ़ी भी 1991 के बाद की दुनिया के लिए तुरन्त और आसानी से रास्ता नहीं खोज सके। लेकिन इस पीढ़ी का सौभाग्य था कि उसे ढेरों आलोचक नसीब हुए। एकान्त-मंडलोई-बद्री की पीढ़ी को यह नसीब नहीं हुआ। बल्कि हुआ यह कि वरिष्ठ हो चले आलोचकों ने प्रतिशोध-पूर्ण व्यवहार किया और कहने-सुनने लायक नये आलोचक आये नहीं।
देर से ही सही, उसके सही सन्दर्भ को समझा जाना आवश्यक है। य यह बात कही जानी चाहिए कि उस कविता में प्रकृति, जीवन, राजनीति और मानव-सम्बन्धों के इतने अछूते प्रसंग मौजूद हैं कि उन्हें एकत्र करने पर एक भरा-पूरा रंगारंग जीवित संसार सामने आ जायेगा। प्रगतिशील धारा को छोड़ दें तो पूरी नयी कविता उसका मुकाबला नहीं कर सकती। इस वैविध्य और सजीवता में ही उसके प्रयोग की सार्थकता है।
साहित्य में आज हम अçस्मताओं की जो राजनीति देख रहे हैं, उसका सम्बन्ध बदली हुई दुनिया से है। अçस्मता की यह राजनीति उस एकधु्रवीय दुनिया का प्रतिफलन भी है और प्रतिशोध भी। इसलिए वह `एक विश्व एक स्‍वप्‍न´ के बदले छोटे-छोटे नाना ब्रrााण्डों का दृश्य निमिüत करती है। `वापसी´ वाली कविता और `अçस्मता´ वाली कविता के बीच `लोकसंवेदना´ वाली जो कविता मौजूद है, उसकी चुनौतिया¡ ज़्यादा गम्भीर थीं। पुरानी दुनिया नष्ट हो गयी थी, नयी दुनिया बनी नहीं थी, पुराने सपने जीवित थे, नयी आशा दिखती नहीं थी, ऐसे में अस्पष्टता, दिशाहीनता का आना उतना आश्चर्यजनक नहीं है, जितना अपने नये औ$जारों से प्रतिरोध का प्रयत्न करना। फूल-पत्ती उनके यहा¡ भी हैं लेकिन सçब्$जयों के फूल हैं जिन्हें भावुक संवेदनाओं ने उपयोगिता का क्षेत्र समझकर छोड़ दिया है। इसलिए अपनी मानवीय संवेदनशीलता के सहारे उसने `प्रतिरोध की कवितावली´ रची और `वापसी´ वाले अग्रजों से अपनी शर्त पर अपना नाता जोड़ने और तोड़ने का उपक्रम किया। उसने हिम्मत नहीं हारी।
परवतीü कविता `एक विश्व´ से इतनी आक्रान्त है कि वह अçस्मता की राजनीति चाहे जितनी करे, प्रतिरोध की राजनीति में अपने भरसक नहीं उलझती। वह `एक विश्व´ के विजय का उत्सव मनाती है, उसमें भागीदारी मा¡गती है। उसे परिवर्तन में विश्वास नहीं रह गया है। इसलिए वह पाना तो सब कुछ चाहती है, खोने के लिए कुछ भी तैयार नहीं है। इस बा$जारवादी प्रभाव से भूमण्डलीय दौर का सृजनकर्म अछूता नहीं है।
वह प्रतिरोध करे या न करे, लेकिन वह बा$जार का नियन्ता नहीं, हिस्सेदार है, इसलिए उसमें उत्पीडि़त होने का भाव और उत्पीड़न के प्रति असन्तोष है। यही बात कविता को बा$जार से अलग करती है। बा$जार का उसूल है : पैसा आना चाहिए, शरम तो आनी-जानी है। लेकिन इतने बेशर्म वे भी नहीं थे, जो अपने को `सौदागर कवि´ कहते थे, दरबारों के आश्रय में ही जीविका पाते थे! इसलिए `सौदागर´ होने और `कवि´ होने में एक çद्वत्य है। `अçस्मता´ अगर बा$जार के `ब्रांड´ की तरह विशेष पहचान है तो वह विषमतापूर्ण सम्बन्धों की प्रतिक्रिया भी है। यह ची$ज उसे `एक विश्व एक स्‍वप्‍न´ की दमघोंटू एकरूपता से अलग खड़ा करती है। कविता का अपने इस रूप में बने रहना आश्वस्त करता है।

1 comment:

Satish Chandra Satyarthi said...

बहुत ही सुन्दर और सार्थक आलेख !